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परमशान्ति का मार्ग - भाग 1

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :170
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 949
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है परम शान्ति का मार्ग....

Paramshanti Ka Marag (1) a hindi book by Jaidayal Goyandaka - परमशान्ति का मार्ग भाग-1 - जयदयाल गोयन्दका

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रथम संस्करण का निवेदन

इस पुस्तक में ‘कल्याण’ के 30वें से 32वें वर्ष तक के अंकों में प्रकाशित हुए मेरे लेखों का संशोधन करके संग्रह किया गया है। इन लेखों में आस्तिकता, भगवत्प्रेम, मनोनिरोध, श्रद्धा-भक्ति, ज्ञान-वैराग्य, सद्गुण, सदाचार, धर्म, पुरुषार्थ, उत्तम भाव, सत्संग-स्वाध्याय आदि साधनों का, महापुरुषों के प्रभाव का एवं भगवान् के स्वरूप का बहुत सरलतापूर्वक विवेचन किया गया है; साथ ही सभी मनुष्यों के लिये उपयोगी सब प्रकार की उन्नति, व्यावहारिक और सामाजिक सुधार, शिष्टाचार, बालकों के कर्तव्य आदि का एवं तमोगुण, आत्महत्या और ऋण आदि के दुष्परिणामों का भी निरूपण किया गया है। अतः सभी भाइयों, बहिनों और माताओं से विनीत प्रार्थना है कि वे यदि उचित समझें तो इन लेखों को मननपूर्वक पढ़ने की कृपा करें और तदनुसार अपना जीवन बनाने का पूर्ण प्रयत्न करें, जिससे वे परम शान्ति और परमानन्दकी प्राप्ति के पथपर अग्रसर हो सकें। इनमें लिखी बातों को काममें लानेपर मनुष्यका अवश्य कल्याण हो सकता है; क्योंकि ये ऋषि-मुनि, संत-महात्मा, शास्त्र और भगवान् के वचनों के आधार पर लिखी गयी हैं। मैंने तो जो कुछ भी निवेदन किया है, वह मेरी एक प्रार्थना है। जो कोई भी उसको काममें लायेंगे, उनका मैं अपने को आभारी मानता हूँ।
पुस्तक में जो भी त्रुटियाँ रह गयी हों, उनके लिये विज्ञजन क्षमा करें और मुझे सूचना देने की कृपा करें।
विनीत
जयदयाल गोयन्दका

।। ॐ श्रीपरमात्मने नम:।।
परमशान्ति का मार्ग
धर्मयुक्त उन्नति ही उन्नति है
मनुष्य को उचित है कि वह अपनी सब प्रकार की उन्नति करे। मनुष्य की सब प्रकार की उन्नति निष्कामभाव पूर्वक धर्म का पालन करने से ही हो सकती है; किन्तु दु:ख का विषय तो यह है कि आजकल बहुत-से लोग तो धर्म के नाम से ही घृणा के नाम से ही घृणा करते हैं। वास्तव में वे लोग धर्म के तत्त्व को नहीं समझते। अत: प्रत्येक मनुष्य को धर्म का तत्त्व, रहस्य और स्वरूप समझना चाहिये। धर्म का स्वरूप है-
यतोऽभ्युदयनि:श्रेयससिद्धि: स धर्म:।
                        (वैशेषिक दर्शन सूत्र 2)
‘इस लोक और परलोक में जो हितकारक है, उसी का नाम धर्म है।’
जो इस लोक में हितकर जान पड़े, किन्तु परलोक में अहितकर हो, वह धर्म नहीं है। अत: हमारी सभी क्रियाएँ धर्म के अनुसार ही होनी चाहिये। इसी से हमारी सर्वांगपूर्व उन्नति हो सकती है। शारीरिक, भौतिक, ऐन्द्रियिक, मानसिक, बौद्धिक, व्यावहारिक, सामाजिक, नैतिक और धार्मिक-आदि उन्नति के कई प्रकार हैं।
शारीरिक उन्नति
शारीरिक उन्नति के साथ भी धर्म का बहुत घनिष्ठ संबंध है। अत: शारीरिक उन्नति धर्मानुकूल ही होनी चाहिये। शारीरिक उन्नति भोजन से विशेष संबंध रखती है। सात्त्विक भोजन करना शरीर के लिये बहुत ही हितकर है और वही धर्मानुकूल है। भगवान् ने गीता अध्याय 17 श्लोक 8 में सात्त्विक भोजन का इस प्रकार वर्णन किया है-
आयु:सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धना:।
रस्या:स्निग्धा: स्थिरा हृद्या आहारा: सात्त्विकप्रिया:।।
‘आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ानेवाले, रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहनेवाले तथा स्वभाव से ही मनको प्रिय- ऐसे आहार अर्थात् भोजन करने के पदार्थ सात्त्विक पुरुष को प्रिय होते हैं।’
हमें सात्त्विक भोजन के लक्षणों पर ध्यान देना चाहिये। आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, साख और प्रीति को बढ़ानेवाले पदार्थों का भोजन ही सात्त्विक भोजन है। साथ ही वह भोजन रसयुक्त, चिकना, हृदय को प्रिय तथा बहुत कालतक ठहरनेवाला होना चाहिये। ऐसा भोजन क्या है ? गाय का दूध, दही, घी, खोवा, छेना आदि; तिल, बादाम, मूँगफली, नारियल आदि का तेल; अंगूर, संतरा, मौसिमी, नासपाती, सेव आदि फल; आलू, अरबी, तुरई, भिंडी, कोंहड़ा, लौकी, बथुआ, मेथी, पुदीना, पालक आदि शाक-सब्जी; एवं जौ, तिल, गेहूँ, चना, चावल, मूँग आदि अनाज- ये सभी सात्त्विक पदार्थ हैं। ये सभी आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ानेवाले हैं, शरीर को पुष्ट करनेवाले हैं तथा प्राय: सभी पदार्थ स्नि्ग्ध, चिकने, रसयुक्त और मधुर हैं। इन सात्त्विक पदार्थों का अपनी प्रकृति तथा शारीरिक स्थिति के अनुसार परिमितरूप में सेवन करने से शारीरिक और मानसिक उन्नति होती है। इसके विपरीत, राजसी-तामसी भोजन करने से शारीरिक और मानसिक हानि होती है; अत: उनका सेवन नहीं करना चाहिये। राजसी और तामसी भोजन का लक्षण बतलाते हुए भगवान् ने कहा है-
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिन:।
आहारा राजसस्येष्टा दु:खशोकामयप्रदा:।।
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्।।
                                (गीता 17/9-10)
‘कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, बहुत गरम, तीखे, रूखे, दाहकारक और दु:ख, चिन्ता तथा रोगों को उत्पन्न करनेवाले आहार अर्थात् भोजन करने के पदार्थ राजस पुरुष को प्रिय होते हैं अर्थात् राजसी भोजन है। एवं जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त, बासी और उच्छिष्ट है, तथा जो अपवित्र भी है, वह भोजन तामस पुरुष को प्रिय होता है अर्थात् वह तामसी भोजन है।’
अत: उपर्युक्त राजसी और तामसी भोजन का परित्याग करके सात्त्विक भोजन का सेवन करना ही उचित है।
इसके सिवा पुरुषों के लिये आसन, दण्ड, बैठक, कुश्ती, दौड़ आदि कसरत करना स्त्रियों के लिये चक्की से आटा पीसना, चर्खा कातना, रसोई बनाना, झाड़-बुहारकर घर की सफाई रखना- आदि गृहकार्य करना एवं अन्य शारीरिक न्याययुक्त परिश्रम करना शरीर की उन्नति में लाभदायक है। इसके विपरीत निकम्मा रहना, अधिक सोना, प्रमाद, दुराचार, मिथ्या बकवाद, अनुचित परिश्रम और मैथुन करना- ये सब शरीर के लिये महान हानिकारक हैं। इनसे बचकर रहना चाहिये। इस प्रकार शरीर में सात्त्विक बुद्धि, बल, आयु, आरोग्य, सुख और प्रीति का बढ़ना एवं शरीर का स्वस्थ रहना शारीरिक उन्नति है।
भौतिक उन्नति
भौतिक उन्नति शारीरिक उन्नति से भिन्न है। भौतिक उन्नति उसकी अपेक्षा व्यापक है। आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी- इन पाँचों भूतों को वर्तमान में जिसे भौतिक विज्ञान या लौकिक विज्ञान कहते हैं, जिससे आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी से नयी-नयी चीजों का आविष्कार किया जाता है, इस विज्ञान के संबंध में वैज्ञानिक महानुभाव करते हैं कि हम बड़ी उन्नति कर रहे हैं; किन्तु वस्तुत: उनकी यह उन्नति आंशिक ही है। पूर्व के लोगों में भौतिक उन्नति इसकी अपेक्षा बहुत ही बढ़ी-चढ़ी थी, परन्तु उसका प्रकार तथा साधन दूसरा था और वह अधिक विकसित एवं प्रभावोत्पादक था। रामायण में वर्णित ‘पुष्पक’ विमान, राजा शाल्व का ‘सौभ’ विमान, पाशुपतास्त्र, नारायणास्त्र और ब्रह्मास्त्र एवं श्रीवेदव्यासजी का वर्षों बाद मृत अठारह अक्षौहिणी सेना का आवाहन करके प्रत्यक्ष दिखाना और बातचीत करा देना तथा श्रीभरद्वाजजी एवं श्रीकपिलदेवजी आदि के जीवन में अष्टसिद्धियों के चमत्कार की घटनाएँ इसके प्रमाण हैं।

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